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श्री परशुराम


छठे अवतार परशुराम का युग आज से लगभग एस हजार वर्ष पूर्व वैवस्वत मन्वन्तर (त्रेता युग) का प्रथम चरण था। परशुराम का जन्म का नाम 'राम' था। 'परशु' शस्त्र इन्हें अत्यधिक प्रिय था, इसलिये ये परशुराम नाम से विख्यात हुए। 

तीन राम

भारतीय वाग्ड़्मय में तीन 'राम' प्रसिद्ध हुए हे - प्रथम राम परशुराम, द्वितीय राम राधव राम, तृतीय राम बासुदेव राम अर्थात 'बलराम' इन तीनो में परशुराम सबसे बड़े थे। पुराणों की गणना के अनुसार परशुराम दाशरथी राम से 60 वर्ष बड़े थे। परशुराम विश्व विख्यात भृगु वंश में जन्मे थें। अत: इन्हे भार्गव राम भी कहा जाता है। इनके पिता का जमदगिन और माता का नाम रेणुका था। इसलिये इन्हे जामदग्नेय राम तथा रेणुका नन्दन भी कहा जाता है। परशुराम के पूर्वज गण-महर्षि भृगु, च्यवन, शुक्रचार्य, दधिचि, आप्नवान, ऋचीक, और्व और महर्षि मार्कण्डेय आदि हैं। परशुराम में अपने पूर्वजों का तप, तेज, त्याग, बलिदान, शोर्य- धैर्य एवं वेद-शास्त्र के प्रति प्रगाढ़ आस्था विधमान थी।

भार्गव राम के पितामह ऋचीक महान शस्त्र और शास्त्रवेत्ता थे, उन्हे अथर्वा आथर्वण भी कहा जाता था। कहते है - अथर्ववेद की अधिकांश रचना का श्रेय इन्हें ही है। परशुराम के सभी पूर्वज वेद रचयिता ऋर्षि-महर्षि थे।
पुराणों में कहा गया है कि महर्षि ऋचीक ने कान्यकुब्ज नरेश महाराज गाधि से उनकी कन्या सत्यवतीसे विवाह करने की अनुमति मांगी। महाराज गाधि ने विवाह न करने की इच्छा से महषि ऋचीक से कन्या के बदले में एक हजार श्याम कर्ण अश्व यह सोचकर मांगे कि न यह ऋषि एक हजार श्याम कर्ण के अश्व दे सकेगा और न कन्या का विवाह करना पड़ेगा: किन्तु सामथ्र्यवान महर्षि ऋचीक ने शीध्र ही अश्व कर्ण तीर्थ (और्व-अरब देश) से एक हजार श्याम कर्ण अश्व लाकर महाराज गाधि को दे दिये। इस प्रकार सत्यवती का विवाह ऋचीक के साथ हो गया। यह कथा पौराणिक शैली में कही गयी है। इसकी परिसिथति जन्य वास्तविक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है।
सत्यवती के साथ समीकरण
भार्गव ऋचीक हैहयवंशी राजाओं की पापाचार विरोधी नीति के कारण हैहयों के घोर विरोधी थे तथा हैहय राजा भी उनके प्रति शत्रुता रखते थे। दूसरी ओर धर्म परायण गाधि भी हैहय राजाओं से घृणा करते थे। किन्तु उनकी दुष्टता और सैन्य शकित से बहुत भय खाते थें। इस प्रकार कान्यकुब्ज नरेश गाधि और महर्षि ऋचीक दोनो ही हैहय वंशियों और उनके सहयोगी अत्याचारी राजाओं से प्रतिशोध लेने के लिए शकित अर्जित करना चाहते थे, इसीलिए महाराज गाधि ने अपनी कन्या का विवाह सबल भार्गव ऋचीक से करके उसे अपना समर्थक दामाद बनाया और ऋचीक ने अपने स्वसुर गाधि की सैन्य शकित बढ़ाने और उनकी सेना को सबल बनाने के लिए अपने पिता और्व के प्रभाव वाले और्व (अरब) देश से उत्तम जाति के अश्व लाकर दिये। इस प्रकार गाधि-कन्या सत्यवती का महर्षि ऋचीक के साथ विवाह एक राजनीतिक समीकरण था। महर्षि ऋचीक शस्त्र-शास्त्र एवं आयुर्वेद चिकित्सा के महान ज्ञाता थे, अत: महाराज गाधि ने अपनी सुरक्षा के लिये ऋचीक को अपने राज्य में आश्रम के लिये भूमि देकर कान्यकुब्ज राज्य में ही बसा लिया था। पुराणों में कहा जाता है कि महर्षि ऋचीक के औषधीय उपचार से ही महाराज गाधि के यहां विश्वामित्र और जमदगिन दोनो मामा-भानजे का लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा ऋचीक आश्रम में साथ-साथ हुर्इ थी। जमदगिन का विवाह इक्ष्वाकुवंशी महाराज रेणुक की कन्या रेणुका से हुआ था।
भगवान परशुराम का जन्म जमदगिन के अंश से रेणुका के गर्भ से हुआ था। इनके चार बड़े भाई और एक बहिन थी। बहिन की चर्चा पुराणो में नही हुई है। बहिन का संदर्भ अथर्ववेद 6.137.1 में आया हुआ है। आध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत पुराण, स्कन्द पुराण, अगिन पुराण, मतस्य पुराण, देवी भागवत पुराण, नृसिंह और विष्णुत्स्य पुराण आदि में सर्वत्र परशुराम को विष्णु का अवतार कहा गया है। अवतार का अवतरण लोक में उस समय होता है, जब धर्म और धर्म परायण प्रजा का जीवन घोर संकट में होता है। उनकी रक्षा करने वाला कोई नही होता। पृथ्वी पर चारो ओर पाप ही पाप छा जाता है।
राक्षस स्वरूप क्षत्रियों का विध्वंश
परशुराम के अवतारत्व के संबंध में आध्यात्म रामायण, अयोध्या कांड, सर्ग 5, श्लोक 14 में कहा गया है कि इन्होने पृथ्वी के भार रूप दुष्ट क्षत्रियो को नष्ट करने के लिये भृगु-पुत्र परशुराम का रूप धारण किया था। इसी प्रकार आ.रा., युद्ध कांड 10 वां सर्ग 42 वां श्लोक में मन्दोदरी रावण से कहती है, जिस समय राक्षसगण क्षत्रिय रूप में उत्पन्न होकर पृथ्वी के भार रूप हुए, तब राम ने परशुराम रूप से उन्हे कई बार संग्राम में मारा और पृथ्वी की जीत कर कश्यप मुनि को दे दी।
श्रीमदभागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध, अध्याय, श्लोक 230 तथा नवम स्कन्ध 16 वां अध्याय 26वें श्लोक में भी कहा गया है, सर्व शकितमान भगवान श्री हरि ने भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भार भूत राजाओं का बहुत वार वध किया। विष्णु पुराण 4.12.20 पृष्ट संख्या 317 में कहा गया है, सहस्त्रार्जुन कें पचासी हजार वर्ष व्यतीत होने पर भगवान नारायण के अंशावतार परशुराम जी ने वध किया था। कूर्म पुराण 21 वां अध्याय, श्लोक 27-28 में भी अत्याचारी राजा के नाम का उल्लेख करते हुए कहा गया है, कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन हुआ, वह हजार बाहुओं वाला तथा धनुर्वेद जानने वालों में श्रेष्ठ था। जमदगिन के पुत्र जनार्दन परशुराम उसके लिए मृत्यु रूप हुए।
इस प्रकार पुराणों में यत्र-तत्र परशुराम के प्रसंग में आये हुए लेखों से यह स्पष्ट हो गया कि परशुराम का अवतार उद्दण्ड, विधर्मी, अहंकारी, लोक-वेद- शास्त्र-यज्ञ विरोधी ब्रह्रावेता-विद्वेषी राक्षस स्वरूप क्षत्रीय राजाओं का विध्वंश करने के लिए हुआ था। पुराणो से यह स्पष्ट हो गया कि इन दुष्ट राजाओं का नेतृत्व अतुलित बलशाली कृतवीर्य हेहयवंशी नरेश का प्रतापी पुत्र सहस्त्रार्जुनकर रहा था। अथर्ववेद के कांड पांच, सूक्त 18 और सूक्त 19 में भी कहा गया -
ये सहस्त्रमराजन्तासन दशशता उत।
ते ब्राह्राास्य गां जग्ध्वा वैतहव्या पराभवन।।
अर्थ - नीतहव्य वंश के (देवताओं का अंश - हव्य हड़पने वाले) जो राज पृथ्वी पर शासन करते थे वे ब्राह्राण की गाय को खाकर नष्ट हो गये थे।
अतिमात्रमवर्धन्त नोवित दिवम स्पृशन।
भृगु हिंसित्वा सुञंजया वैत हव्या:पराभवन।।
अर्थ - सुञंजय (इस नाम वाले या लोगो को सताने वाले) अत्यधिक बढ़ गये थे लेकिन उन्होने भृंगुवंशियों को विनष्ट कर डाला और वे नीत हव्य (यज्ञ-हव्य-हडपने वाले) हो गये। अत: उनका पराभव हुआ और वे स्वर्ग लोग का स्पर्श न कर सके।
महाभारत एवं पुराणो ने स्पष्ट घोषणा की है कि परशुराम अवतार है। महाभारत अध्यात्म रामायण ने दुष्ट क्षत्रियों, वेद-शास्त्र-यज्ञ विरोधी राजाओं का संहार किया है अथवा दुष्ट राजा यज्ञ-हव्यं हडपने के कारण स्वर्ग को प्राप्त न कर सकें (नर्क गामी हो गये) थें।
पुराणो और महाभारत के बार-बार कहा गया है कि परशुराम ने 21 बार (अनेक बार) पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था। उपयर्ुक्त कथन तत्कालीन भाषिक प्रयोग को न समझने वाले लोगो को भ्रमित कर दिया है। उन्होने क्षत्रिय का अर्थ क्षत्रिय जाति मान कर यह कह दिया है कि परशुराम ने क्षत्रियो का संहार किया है। ऐसा सोचना अर्थ का अनर्थ करना है। वास्तव में शास्त्रों के अनुसार क्षत्रिय और राजा दोनो पर्यायवाची है क्योंकि त्रेतायुग में अथवा मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रिय ही राजा हो सकता था। राजा होने के लिए क्षत्रिय होना अनिवार्य था। वेद और मनुस्मृति में अनेक प्रयोगो में क्षत्रिय को राजा के अर्थ में संबोधित किया गया है। अत: पुराणो में अथवा महाभारत में जहा कहीं भी यह कहा गया है कि 'परशुराम' ने पृथ्वी को अनेक बार क्षत्रिय विहीन कर दिया था, वहा विद्वानो को यही समझना और दूसरो को समझाना चाहिए कि भगवान परशुराम ने अवतार रूप में दुष्ट पापी अत्याचारी राक्षस स्वरूप प्रजा घातक राजाओं का अनेक बार संहार किया था, क्षत्रियों का नहीं।
धर्म विरोधी होने के कारण
वास्तव में त्रेता युग के प्रथम चरण में क्षत्रियों का एक वर्ग वेद-शास्त्र धर्म विरोधी हो गया था, जिसका नेतृत्व हैहयवंशी सम्राट सहस्त्रार्जुन कर रहा था। सम्राट सहस्त्रार्जुन प्रारम्भ में सज्जन और धर्मपरायण था। उसकी धर्मपरायण तपस्या को देखकर दत्तात्रेय भगवान ने उसे सहस्त्रभुजी, तेजस्वी, महाप्रतापी और अपराजेय होने के वरदान दे दिये थें। वरदान प्राप्त करते ही वह मंदाध होकर प्रजा, ऋषि, मुनियों, धर्मात्मा राजाओं, धेनुओं और ऋषि कन्याओं को सताने लगा। सहस्त्रार्जुन ने गर्वोह और अहंकारी होकर कर्कोटक नाग से उसका राज्य छीन लिया। लंकेश रावण को बंदी बना लिया था। विश्वामित्र के पुत्र लोहित के राज्य को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। महर्षि वशिष्ठ के आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया। प्रकृति की महाशकितयों वायु, सागर, पर्वत का तिरस्कार कर दिया। सौम्य महर्षि जमदगिन की कामधेनु का अपहरण कर लिया और जब महर्षि गणों ने उसे समझाने का प्रयत्न किया, तब उन्हे अपमानित किया। परम प्रभु छटे अवतार ने जब देख लिया कि अब पापी के अत्याचारो का घड़ा भर गया, तब उन्होने दुष्ट महाशकितशाली सहस्त्रार्जुन और उसके सौ पुत्रों तथा तालजंध, तुण्डीकेरा, शर्यात, अवनित आदि अंहकारी राजाओं का संहार किया। सहस्त्रार्जुन को वरदानो ने शकितशाली तो बना दिया था। किन्तु उसके अंहकार ने धर्म और बुद्धि का अपहरण कर लिया था। इसी कारण उसकी उद्दण्ड-शकित उसके विनाश का कारण बनी।
अंहकार मनुष्य की समस्त कोमल वृतितयों को जला देता है, इससे उसमें कठोरता आ जाती है। कठोरता ही मनुष्य को मानव से दानव बना देती है। दुर्भाग्य से सहस्त्रार्जुन के साथ यही हुआ। वह अधर्मी बनकर अवतार परशुराम के हाथ से मृत्यु को प्राप्त हुआ।
महाभारत-पुराणों के कुछ प्रंसगों को देखकर कुछ विद्वान परशुराम की क्षत्रिय विरोधी कहते है, यह सत्य नही है ? परशुराम अवतार थे। अवतार सबके लिए समान होते है। उसके लिए सब जन समान होते है। थोड़ा सोचने की बात है यदि परशुराम क्षत्रिय-द्रोही और ब्राह्राण समर्थक होते तो वे एवं ऋषि-पुत्र रावण का समर्थन करते करतें। उन्होंने धर्मात्मा सूर्यवंशी क्षत्रिय दशरथी राम को नारायणी धनुष दिया था। चंदवंशी क्षत्रिय कृष्ण और बलराम को सुदर्शन चक्र और धनुष दिया था, भीष्म को अपना शिष्य बनाया था। यदि परशुराम ब्राह्राण समर्थक होते तो नारायणी धनुष राक्षस राज रावण को समर्पित करते, राम को नही।
दशरथ पुत्र राम क्यों
एक बात यह भी समझने की है कि यदि परशुराम क्षत्रिय द्रोही होते तो क्या सूर्यवंशी क्षत्रिय महाराज दशरथ अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम क्षत्रिय हंता भार्गव राम के नाम पर रखते ? परशुराम के उद्दात्त, धर्म परायण, लोक मंगलकारी गुणो को देखकर ही दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम 'राम' रखा था।
यदि वह ब्राह्राण-क्षत्रिय संघर्ष होता तो क्या क्षत्रिय सहस्त्रार्जुन आर्य राजाओं को बंदी बनाता और ब्राह्राण ऋषि पुत्र होकर रावण ब्राह्राणों ऋषि मुनियों को बंदी बनाता, कदापि नही। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि परशुराम ने क्षत्रियो का वध किया, वे किसी जाति के विरोधी नही थें वरन राक्ष्ज्ञसो का संहार करने के लिए आये थे तथा उन्होने दुष्टों का संहार करके अपने अवतारत्व को सफल बनाया था। परशुराम का राम-लक्ष्मण के साथ विवाद दिखाकर भी कार्इ उत्तम आदर्श स्थापित नही किया गया है। 'भगवान परशुराम' रसात्मक शोधग्रन्थ में इस प्रंसंग का भी तर्क सम्मत विशदीकरण किया गया है। जब धनुष भंग के प्रसंग में 'भार्गव राम' और राधव राम आमने सामने खड़े होते है, तब भार्गव राम ने राधव की विन्रमतापूर्ण शकित की हर प्रकार से परीक्षा लेकर उन्हे योग्य पाया और कहां '' राम हम दोनो ही राम है। जो तुम हो वही मै हू वही तुम हो। ''
परशुराम के उपर तीसरा दोष मातृहंता होने का लगाया जाता है। यह प्रसंग भी कोई उत्तम आदर्श प्रस्तुत नही करता है, जबकि अवतार का आगमन लोक के समक्ष धर्म के उत्तम आदर्श को प्रस्तुत करना होता है
मातृ मोह की परीक्षा
वास्तव में महर्षि जमदगिन ने माया द्वारा निर्मित कृत्रिम रेणुका का शिरोच्छेदन कराकर परशुराम के मातृ-मोह की परीक्षा ली थी। परशुराम ने मां का नही अधर्म का शिरोच्छेदन कर यह सिद्ध किया कि मेरे लिए धर्म समस्त संबंधो से ऊपर है।
संसार में विधाता ने परशुराम जैसा चरित्र सृजित ही नही किया। वह राज्य जीतता है, किन्तु राज्य नही करता। उसे पत्नी चाह, सन्तति, माया धन संपदा का, मोह यश, का आर्कषण कभी नहीं व्याप्तता। राज्य जीतकर संसार में कोर्इ ऐसा विजेता नहीं हुआ, जिसने राज्य न किया हो अथवा जो चक्रवर्ती न कहलाया हो, किन्तु भार्गव राम ऐसा विजेता है, जो राज्य जीतकर कश्यप ऋषि को इसलिए दान कर देते है कि वे उसे सामान्य आवश्यकता वाले लोगों को वितरित कर दें। वे विवाह इसलिए नही करते क्योंकि अपने समग्र जीवन को लोक-कल्याण में लगाना चाहते है।
वे महान पराक्रमी योद्धा ऐसे है कि कभी किसी से पराजित नही होते और न युद्ध मांगने वाले को कभी निराश करते, इसलिए श्रीमदभागवत गीता में श्रीकृष्ण ने परशुराम की महानता स्वीकार करते हुए कहा-
'राम: शस्त्र भृतामहम' कृष्ण (अर्जुन से), मैं शस्त्रधारियों में राम हूं।
केरल प्रदेश बसाया
परशुराम ने केवल युद्ध ही नही किये वरन लोक कल्याणकारी रचनात्मक कार्य भी किये है। उन्होने समुन्द्र से अपने प्रयत्न द्वारा भूमि लेकर केरल प्रदेश को बसाया। गौकर्ण तीर्थ की समुन्द्र से रक्षा की। केरल को अभी भी परशुराम क्षेत्र कहा जाता है। वहा पर परशुराम संवत भी चलता है। परशुराम की संहारक, सृजन और पालन तीनो शकितयों के कारण ही उन्हे त्रिवन्त कहा जाता है। त्रिवन्त प्रभु परशुराम ने केरल में जा तपस्या की वही त्रिरूवन्तपुर की स्थापना की थी। आज त्रिवन्तरमपुरम केरल प्रदेश की राजधानी है। परशुराम ने लोक कल्याण के लिये एवं धरतीवासियों की प्यास बुझाने के लिए ब्रह्रापुत्र (आसाम) रामगंगा (उत्तरप्रदेश), बाणगंगा (महाराष्ट्र) को प्रभावित किया।
महाभारत पुराणो के कुछ प्रसंगो को देखकर कुछ विद्वान परशुराम को क्षत्रिय विरोधी कहते है, यह सत्य नही है ? परशुराम अवतार थे अवतार सभी के लिए समान होते है।
परशुराम का कर्म क्षेत्र केवल भारत भूमि ही नही वरन भारत भूमि से बाहर भी रहा है। जब उन्होने भारत भूमि को राक्षसो से मुक्त कर दी और दुष्टजन हिमालय की दूसरी और उत्तर दिशा में पलायन कर रहे थें तब उन्होने वहा भी उनका पीछा किया। इस अभियान में प्रथम उन्होने जिस स्थान पर शत्रुओं को पराजित करके सैन्य शिविर लगाया, उस स्थान का नाम परशुरामपुर पड़ा जो कालान्तर में पुरूषपुर से पेशावर हो गया। आगे बढकर परशुराम ने कश्यप प्रदेश को पराजित किया इसके प्रभाव से कश्यप प्रदेश पहले परशुराम भूमि बाद में पशिया हो गया। पशिया में पारशी परशुराम के अनुयायी हो गये। कालान्तर में इस्लाम के आक्रमण समय वे भारत चल गये थें आज भी मध्य भारत में पर्शियन भाषा परशु मानव समुह पर्शियन गल्फ, फारस की खाड़ी, फारस, फारसी, पारसी, आदि नाम जाति देश आदि भगवान परशुराम की गौरव गाथा का बयान कर रहे है। जब कश्यप प्रदेश में रहकर परशुराम ने आर्यत्व का प्रचार किया था। तब पर्शिया के साथ उसे आर्यण और आरार्क भी कहने लगे थे। आर्यण और आरार्क अब इरान और इराक कहलाते है।
ऋचाओं की रक्षा
परशुराम कोई एक उद्देश्य लेकर धरा पर नही आये थें। शास्त्र के साथ शस्त्र को भी अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। एक दिन वह अन्तर्मुखी भाव लोक में लीन हो गये थे कि यकायक उनकी वाग्धारा से वेद मंत्र फूटने लगे और उन्होने अल्पकाल में अगिनदेव यज्ञ कुशाओं, उषा रात्री, भारती, सरस्वती, धावापृथ्वी, और वनस्पति आदि देव शकितओं के लिए 11 वेद ऋचाओं की सृषिट कर दी (ऋग्वेद दशम मण्डल के सुक्त 110 मे से ये ऋचाएँ संकलित है) सब देव महर्षि और देव-शकितयाँ सोचने लगी कि परशुराम का अविर्भाव ऋचाएँ रचने के लिए नही है वरन वेद ऋचाओं और शास्त्रो की रक्षा करने के लिए हुआ है। वेद रचना करने वाले ऋर्षि महार्षि इस समय बहुत है किन्तु इनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है। भगवान परशुराम ऋषि मुनियों की चिन्ता को जान गये थें। अत: दीनो पर दया करने वाले श्रीनरहरी प्रभु के विशिष्ठ अंश प्रभु परशुराम ने वेद वाणी की धारा को तत्काल अवरूद्ध कर दिया है। यह देखकर देव प्रसन्न हुए परशुराम वेद रचना छोडकर वेद रक्षा मे लग गये। परशुराम की सदैव यह रीति थी कि जहाँ भी कोई विजय प्राप्त करते थे तपस्या यज्ञ अनुष्ठान आदि का आयोजन भी करते थे तो वही विजय स्तम्भ के रूप में अपने आराध्य शिवलिंग की स्थापना कर देते थे। भगवान परशुराम द्वारा स्थापित प्रमुख 12 ज्योतिर्लिग सोमनाथ, महाकालेश्वर, रामेश्वरम, वैधनाथ, कैदारनाथ, अमरनाथ, विश्वनाथ, ओंकारेश्वर और परशुरामेश्वर, (पुरा महादेव) आदि है। परशुराम ने महादेव शकित पीठो की स्थापना भारत वर्ष में ही नही वरन दिगिवजयकाल में बाहर के देशो मे भी की थी। भिन्न भिन्न देशो में जो भी विशाल शिवलिंग पाये जाते हैं उसकी स्थापना भगवान परशुराम द्वारा ही की गई है। परशुराम की भकित और शकित के ये स्मृति चिन्ह भारतीय संस्कृति की गौरव गाथा, युगों युगों तक गाते रहेगे ऐसा विश्वास है।
भगवान परशुराम की जय ।।।

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